पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/८६

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आचार्य उपगुप्त ८७ "यह तेरा पागलपन है।" "नही मा, मैंने सब बातें विचार ली हैं।" "क्या विचार ली है ?" "इस काम से दो बाते होगी-एक तो श्रेष्ठि मुक्त होगे, दूसरे भैया की खोज- जांच बन्द हो जाएगी और वे सुरक्षित रह सकेंगे।" "परन्तु ये बर्बर सैनिक तेरा कैसी निर्दयता से बात करेंगे? चक्रवर्ती तक जीवित भी पहुच गई, तो वह शत्रु क्या तुझे छोड़ेगा?" न जाने क्यो चक्रवर्ती का नाम सुनकर शैला का मुख लाल हो आया। उसने कहा -माता! चक्रवर्ती की आज्ञा जीवित पकड़ने ही की है। जीवित पकड़कर वे वध नही करेगे, चक्रवर्ती के सम्मुख ले जाएगे। वहा पहुंचकर मैं चक्रवर्ती से समझ लूगी। "न शैला, मै तुझे इतना साहस न करने दूगी। चलो, हम लोग अन्यत्र चलें।" शैला ने आंखों में आंसू भरकर कहा-तब कलिग राजपट्ट महिषी इतनी स्वार्थी हो गई कि जिसकी उदारता और आश्रय प्राप्त किया, उसे इस विपन्ना- वस्था में छोड़ जाएगी? लल्ल अब तक चुप थे। वे बोले-माता ! शैला ही की बात रहे। विशिष्ट अवसरों पर विशिष्ट पुरुष अपना प्रताप और त्याग प्रकट करते है । शैला का त्याग इसके वश के उपयुक्त है। जो हो, श्रेष्ठिवर को छुड़ाना ही उचित है। "तब क्या और कोई उपाय उपयुक्त नही ?" "नही।" राजमाता गम्भीर चिन्ता में मग्न हुई। शैला ने कहा-माता! मैं कलिंग की राजकुमारी हूं, शस्त्र-विद्या और अश्वारोहण में कुशल हू। पिताजी ने मुझे कुछ शिक्षा भी दी है ! इस प्रकार मैं एक सम्राट् के सम्मुख जाकर स्वयं उसके इस पातक और अत्याचार के सम्बन्ध में पूछना चाहती हूं। इससे अवश्य हमारा कुछ कल्याण होगा। अन्त में रानी ने सिर हिलाया। शैला ने कहा-तब महानायक ! तुम कुन्द से कह दो कि तुम्हारे घर में कलिग का राजकुमार छिपा हुआ है, उसे पकड़ाकर श्रेष्ठि को छुड़ा दो।