पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/८७

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आचार्य उपगुप्त लल्ल ने कहा-यह कर्तव्य मुझे पालन करना होगा ! राजकुमारी ! तुम स्वयं ही यह साहस करो। राजकुमारी ने कहा-नही, तुम्ही उससे कहो, जिससे उसपर भेद प्रकट न होने पाए। उसने कहा- लल्ल का प्रस्ताव सुनकर कुन्द भय, आश्चर्य और दु.ख से विमूढ हो गई। --क्या कलिंग का राजकुमार "जी हा, वह युवक वही कलिग-राजकुमार है, जिसके सिर का मूल्य दस सहस्र है । इतने मे ही तो श्रेष्ठिवर छूट जाएगे।" "और मैं उन्हे पकडा दू-अतिथि को जो मेरे पति के पूज्य नही, उनके स्वर्गीय पिता के पूज्य है ? वृद्ध महोदय, आपसे ऐसे नीच प्रस्ताव की आशा न थी। आप कदाचित् अपने ही स्वामी से विश्वासघात कर रहे है !" "नही श्रष्ठिवधु ! राजकुमार स्वय यह इच्छा कर रहे है।" "राजकुमार स्वय इच्छा कर रहे है ?" कुन्द ने विमूढ होकर पूछा। "जी हा, उन्हीका प्रस्ताव तो मै लाया हूँ।" "तो कुमार की उदारता और त्याग धन्य है। उनके चरणो में मेरा प्रणाम कहिए। परन्तु यह अधर्म मुझसे न होगा। हे ईश्वर ! पवित्र अतिथि से विश्वास- घात करने की आप सम्मति दे रहे हैं !" "विश्वासघात कैसे ?" "नहीं-नही, कदापि नहीं।" शैला ने निकट आकर कहा-देवी ! मेरी यह तुच्छ भेंट आपको स्वीकार करनी ही पडेगी। आप पतिप्राणा, साध्वी और धर्मात्मा है, आपका सौभाग्य अचल रहे । श्रेष्ठिवर महान् पुरुष है, मुझे प्रसन्नता होगी कि मेरा शरीर मेरे मित्र के काम आया। कुन्द ने रोते-रोते कहा-राजकुमार ! ऐसी अधर्म की बात मुख से न निकालिए। "अधर्म नही देवि ! मुझे तो स्वयं सम्राट् के निकट जाना ही है।" "परन्तु मैं यह कुकृत्य न करूगी।" "तब श्रेष्ठिवर मुक्त कैसे होगे "