पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/९५

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आचार्य उपगुप्त महानायक ने विमूढ होकर राजकुमार के इस प्रगल्भ भापण को सुना। वह खडा रह गया । सम्राट भी चकित हुए। उन्होने दृष्टि गाड़कर राजकुमार की मुख-मुद्रा देखी। कुमार ने एक कटाक्षपात करके मुख नीचा कर लिया और कहा-सम्राट्, महानायक को आज्ञा प्रदान करे तो मैं सम्राट का अभिवादन करू । सम्राट ने महानायक को जाने का सकेत किया और कुमार के निकट आकर कहा-कलिंग-राजकुमार! अभिनन्दन की आवश्यकता नही । मैने तुम्हारे राज्य और परिवार के साथ बडा अन्याय और अत्याचार किया है। मैंने तुम्हे इसलिए बुलाया है कि अब तुम्हारे पूज्य पिता का पता लगाना कठिन है। राजकुमार, तुम चाहो तो मुझे उस अपराध का दण्ड दो। परन्तु मै चाहता हू कि तुम मुझे अपना शत्रु न समझो । प्रिय राजकुमार! क्या मेरा अनुरोध रखोगे?-छद्मवेशी राज- कुमार कण्टकित होकर दो कदम पीछे हट गए। उन्होने धरती पर घुटने टेककर सम्राट का अभिवादन किया और कहा-चक्रवर्ती की जय हो। राजा राजाओं से युद्ध करते है, जय-विजय एक पक्ष की होती है । सम्राट को विजित राज्य के बन्दी राजपुत्र के प्रति इतने शिष्टाचार की आवश्यकता नही । "नही राजकुमार | अकारण ही मैने उस समृद्धिशाली राज्य को भ्रष्ट किया और अब अकारण ही कुमार ! तुम्हारे प्रति मेरे हृदय में अपूर्व प्रेम उमड रहा है-यह क्या बात है ? अच्छा अपना हाथ तो मुझे दो प्रिय ।" परमप्रिय कुमार ने पीछे हटकर कहा-नही श्रीमान् ! यह सेवक इस सम्मान के योग्य नहीं। श्रीमान् को भी शत्रु-पुत्र का इतना सत्कार करना उचित नहीं। "शत्रु-पुत्र नही, कुमार ! मैने निश्चय किया है कि मैं तुम्हारे पिता का राज्य तुम्हे युद्ध-क्षति सहित लौटा दूगा, इसके सिवा और भी जो मांगोगे, मैं दूगा।" "सम्राट् क्या सत्य ही प्रतिज्ञाबद्ध होते है ?" "हां-हा प्रिय कुमार ! मै वचन देता है।" “सम्राट्, मुझे मेरी मागी वस्तु देगे?" "अवश्य ! चाहे वह सिंहासन ही क्यो न हो !" "सिंहासन तक ही, बस ?" छद्मी कुमार ने कटाक्षपात किया। "प्राण भी, शरीर भी । प्यारे कुमार! तुम्हारी चितवन कितनी प्यारी है ! लाओ, अपना हाथ तो दो।"