पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/९६

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आचार्य उपगुप्त Eu "तब आपके प्राण और शरीर मेरे हुए ? श्रीमान्, फिर विचार लें। यह तुच्छ हाथ उपस्थित है।" सम्राट् उसे पकड़ने के लिए लपके । आचार्य उपगुप्त ने उच्च स्वर से पुकार- कर कहा, "चक्रवर्ती ! तनिक धैर्य !" चक्रवर्ती ने देखा : आचार्य दो व्यक्तियो के साथ आ रहे है। दोनों व्यक्ति दूर खड़े रह गए। आचार्य आगे बढे । सम्राट् ने आगे बढकर आचार्य के चरणो में प्रणाम करके कहा-आचार्य ! कलिंग-राज- कुमार जितेन्द्र उपस्थित है। मैने इन्हे उनका राज्य और युद्ध-क्षति दे दी है, अपना शरीर और प्राण भी दिया। ये इनके स्वामी है। कुमार ! आचार्य को प्रणाम करो! छद्मवेशी कुमार आगे बढ़कर आखे फाड़-फाडकर आचार्य उपगुप्त की ओर देखने लगे । आचार्य ने आगे बढ़कर कुमार के मस्तक पर हाथ धरकर कहा- कल्याण ! कल्याण ! छमवेशी राजकुमार के होठ फडककर रह गए। उसके मुख से अस्पष्ट स्वर में निकला-श्रेष्ठिव'र!-आचार्य ने सम्राट के निकट पहुचकर मधुर मुस्कान के साथ कहा-चक्रवर्ती ने बड़ी ही बुद्धिमत्ता से अपना प्राण और शरीर सुपात्र को दिया। हा, अब आप उस पवित्र हाथ का ग्रहण करिए !-इतना कहकर आचार्य ने सम्राट् का हाथ पकड लिया। सम्राट् चकित हुए । कुमार का मुख लाल हो गया। वे दो कदम पीछे हट गए। आचार्य ने कहा-कलिग-महाराजकुमारी शैला ! तुमने स्वय ही यह क्रय- विक्रय किया है, अब संकोच क्यो? सम्राट् के मुख से निकल गया -क्या कहा ? कलिंग-महाराजकुमारी शैला देवी ! आचार्य, आप क्या कहते है। आचार्य ने उधर ध्यान न देकर कहा-महाराजकुमारी, अब अपना छलवेश त्याग दीजिए और तनिक निकट आइए !-इतना कहकर उन्होने कुमारी का हाथ सम्राट् के हाथों में पकड़ा दिया। दोनो का हृदय-स्पन्दन क्षणभर को रुक गया। कुछ शान्त होने पर सम्राट ने कहा-आचार्य ! कुकर्म का यह सुफल क्यो? आचार्य ने कहा-सम्राट् ! यह सुकर्म का फल है। देखिए, वह कलिंगराज और महाराजकुमार खड़े हैं, उनका स्वागत कीजिए। 3