पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/९७

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आचार्य उपगुप्त सम्राट् दौडकर कलिंगराज के पैरो मे झुके । कलिक महाराज महेन्द्र ने उठा- कर उन्हे छाती से लगा लिया। दोनों महानृपति तन-मन से एक हो गए। इसके बाद आचार्य ने कुमारी के त्याग और साहस का सारा विवरण कह सुनाया। पिता ने पुत्री को छाती से लगाया और अपने हाथ से उसे सम्राट् के हाथो सौपकर कहा-सम्राट् ! यद्यपि आप इसे भी मेरे देने से पूर्व ही ले चुके, परन्तु फिर भी मेरे हाथ से एक बार ग्रहण कीजिए। सम्राट् ने नतमस्तक होकर कुमारी का पाणिग्रहण किया। साम्राज्य भर में आनन्दोत्सव की धूम हो गई। कलिंगराज वनवासी हुए और महाराजकुमार जितेन्द्र कलिंग की गद्दी पर विराजित हुए।