पृष्ठ:बा और बापू.djvu/३५

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बापू की रसोई आश्रम मे सबकी इकट्ठी रसोई बनती थी। वहा के सब छोटे-बडे काम भी सब लोग मिल-जुलकर स्वय कर लेते थे। वहा का एक यह भी नियम था कि आश्रम में होने वाली साग- सब्ज़ी ही काम में लाई जाए। बाहर से साग-सब्जी न मगाई जाए। इस आश्रम की रसोई मे, आश्रम के खेत में पैदा होने वाले कद्द का साग रोज़ बनता था। कद्दू का साग क्या बनता था, कद्दू के बडे-बडे टुकडो को उबाल लिया जाता था। उसमे नमक भी नही छोडा जाता था । जिसे इच्छा होती वह अलग से नमक ले सकता था । आश्रम की अनेक बहिनी को कद्रू अनुकूल नहीं होता था। किसीको बादी होकर चक्कर आने लगते, किसीको खट्टी डकारें आने लगती । बापू सबको पानी चढाते रहते इसलिए, और कुछ सकाचवश भी आश्रमवासिनी वहिने बामू से इसका जिक्र नहीं करती थी, परन्तु ये सब बातें 'बा' की दृष्टि से तो नही छिप सकती थी। एक वहिन ने रोज-रोज़ के इस कद्दू के साग पर एक 'गरवी' तयार कर ली। 'वा' ने वह सुनी और तुरन्त वापू के पास पहुचकर कहा, "तुम्हारे कद्दू का साग खाकर मणि बहिन को बादी को तकलीफ होती है और चक्कर आते हैं। दुर्गा धहिन को डकारें आती हैं । कददू का साग भी कही निरा उवला हुआ बनता है। उसे मेथी से छौंवा जाए और उसमे गरम मसाला आदि सब कुछ डाला जाए, तभी वह बाधव नहीं होता।"