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बिखरे मोती ]
 



है; दिन भर बकरी की तरह मुँह चला ही करता है; फिर भी पेट नहीं भरता । बाजार से भी मिठाई मंगा-मंगा के खाती है। अभी मैं न देखती तो क्या तू कभी बतलाती ?"

भामा-(मुस्कराते हुए) “तो बतलाती क्यों ? कुछ बतलाने के लिए थोड़े ही मंगवाई थी ?”

-“क्यों क्या मैं घर में कोई चीज ही नहीं हूँ ? तेरे लिए तो मिठाई के लिए पैसे हैं। मैं चार पैसे दान-दक्षिणा के लिए मांगू तो सदा मुँह से नहीं निकलती हैं। तेरा आदमी है; तो मेरा भी तो बेटा है। क्या उसकी कमाई में मेरा कोई हक़ ही नहीं । मुझे तो दो बार सूखी रोटी छोड़ कर कुछ भी न नसीब हो और तू मिठाई मंगा-मंगा के खाए । कर ले जितना तेरा जी चाहे। भगवान तो ऊपर से देख रहा है । वह तो सज़ा देगा ही।" ।

-(मुस्कराते हुए)"क्यों कोस रही हो माँ जी ! मिठाई एक दिन खा ही ली तो क्या हो गया ? अभी रखी है; तुम भी ले लेना।"

-“चल, रहने दे । अब इन मीठे पुचकारों से

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