पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ कदम्ब का पेड़
 

खाती है । और मैंने कभी अपने लिए पैसे-धेले की चीज़ के लिए भी कहा तो फ़ौरन ही टका-सा जवाब दे देती हैं, कहती है पैसा ही नहीं है। इसके नाम से पैसे आ जाते हैं; मेरे नाम से कंगाली छा जाती हैं। किसी भी चीज़ के लिए तरस-तरस के मांग-मांग के जीभ घिस जाती है;तब जी में आया तो ला दिया नहीं तो कुत्ते की तरह भूंका करो। यह मेरा इस घर में हाल हैं। आज भी दोना भर मिठाई मंगवाई है। मैंने ज़रा ही पूंछा तो मारने के लिए खड़ी हो गई। कहती है मेरे आदमी की कमाई हैं, खाती हूँ; किसी के बाप का खाती हूँ क्या ? उसका आदमी है तो मेरा भी तो बेटा है, उसका १२ आने हे है तो मेरा ४ आने तो होगा ।”

पड़ोस की एक दूसरी बुढ़िया बोली-“राम राम !यही पढ़ी-लिखी होशयार हैं। पढ़ी-लिखी हैं तो क्या हुआ अक़ल तो कौड़ी के बराबर नहीं है। तुमने भी नौ महीने पेट में रखा बहिन ! तुम्हारा तो सोलह आने हक़ है । बहू को, बेटा मां के लिए लौंडी बनाकर लाता है; वह तुम्हारे पैर दबाने और तुम्हारी सेवा करने के लिए हैं। हमारा नन्दन तो जब तक बहू मेरे पैर नहीं दबा लेती, उसे अपनी कोठरी के अन्दर ही नहीं आने देता।"

९०