पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बिखरे मोती ]
 


-"अपनी ही माल खोटा हो तो परखने वाले का क्या-दोष, बहिन ! बेटा ही सपूत होता तो बहू आज मुझे, मारने दौड़ती।'

[ ३ ]

गंगाप्रसाद गाँव की प्रायमरी पाठशाला के दूसरे मास्टर की जगह के लिए उम्मीदवार थे। साढ़े सत्रह रुपए माहवार की जगह के लिए बिचारे दिनभर दौड़-धूप करते, इससे मिल, उससे मिल, न जाने किसकी-किसकी खुशामद करनी पड़ती थी; फिर भी नौकरी पाने की उन्हें बहुत कम उम्मीद थी। इधर वे कई मास से बेकार बैठे थे। भामा के पास कुछ जेवर थे जो हर माह गिरवी रखे जाते थे और किसी प्रकार काट-कसर करके घर का खर्च चलता था । भामा पैसों को दांत तले दबाकर खर्च करती । सास और पति को खिलाकर स्वयं आधे पेट ही खाकर पानी से ही पेट भरकर उठ जाती। कभी दाल का पानी ही पी लिया करती । कभी शाक उबालकर ही पेट भर लिया करती । रुपये पैसों की तंगी के कारण घर में प्रायः रोज ही इस प्रकार कलह मची रहती ।

जब गंगाप्रसाद जी दिन भर को दौड़-धूप के बाद थके-हारे घर लौटे तब शाम हो रही थी; आंगन में उनकी मां