उदास बैठी थीं; बेटे की देखा तो नीची आँख करली, कुछ बोली नहीं। गंगाप्रसाद अपनी मां का बड़ा आदर करते थे। उनका बड़ा ख्याल रखते थे। जिस बात से उन्हें जरा भी कष्ट होता वह बात वे कभी न करते थे। मां को उदास देखकर वे मां के पास जाकर बैठ गये; प्यार से मां के गले में बाहें डाल दी; पूछा-"क्यों मां आज उदास क्यों है ? क्या कुछ तबियत खराब है ?”
-"नहीं, अच्छी हैं।"
-"कुछ भी तो हुआ है; माँ तू उदास है ।”
अब माँँ जी से न रहा गया; फूट-फूट के रोने लगीं; बोलीं-“कुछ नहीं मैं आदमी-औरत में लड़ाई नहीं लगवाना चाहती; बस इतना ही कहती हूँ कि अब मैं इस घर में न रह सकुँगी; मेरे लिए अलग झोपड़ा बनवा दे; वहीं पड़ी। रहूँगी । जी में आवे तो खरच भी देना नहीं तो मांग के खा लूगी ।”
–“क्यों मां ! क्या कुछ झगड़ा हुया है ? सच-सच कहना !"
-“आज ही क्या ? यह तो तीसों दिन की बात है !
तेरी घर वाली ने मोहन से मिठाई मंगवाई; वह दोना
भर मिठाई मेरे सामने लाया; मैं जरा पूछने गई तो कहती