पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ किस्तम
 


करावे सो थोड़ा ही है। अपने सिर पर की चांदी को तो लाज रखने । बेटी-बहू के सूने घर में घुसते तुम्हें लाज भी न आई? तुम्हारे ही सर चढ़ाने से तो यह इतनी सरचढी है। पर मैं न जानती थी कि बात इतनी बढ़ चुकी हैं। इस बुढ़ापे में भी गढे़ में ही जा के गिरे ! राम, राम ! इसी पाप के बोझ से तो धरती दबी जाती हैं।"

वे तीर की तरह कोठरी से निकल गई। उनके पीछे ही रामकिशोर भी चुपचाप चले गए। वे बहुत वृद्ध तो न थे परन्तु जीवन में नित्य होने वाली इन घटनाओं और जवान बेटे की मृत्यु से वे अपनी उम्र के लिहाज से बहुत बुढे़ हो चुके थे। ग्लानि और क्षोभ से वे बाहर की बैठक में जाकर लेट गए। उन्हें रह-रह कर चन्दन की याद आ रहीं थी । तकिए में मुँह छिपाकर वह रो उठे। पीछे से आकर मुन्नी ने पिता के गले में बाहें डाल दी पूछा- क्यों रोते हो बाबू” रामकिशोर ने विरक्ति के भाव से कहा-अपनी किस्मत के लिए बेटी !”

सवेरे मुन्नी ने भौजी के मुँँह से भी किस्मत का नाम सुना था और उसके बाद उसे रोते देखा था। इस समय अब उसने पिता को भी किस्मत के नाम से रोते देखा तो

१०२