था। उस परिवार में दो विधवाएँ थीं। एक तो पुजारी
की चूढी माँ, दूसरी यह अभागिनी बालिका । एक की
जीवन अंधकार पूर्ण भूतकाल था जिसमें कुछ सुख-स्मृतियाँ
धुंधली तारिकाओं की तरह चमक रही थीं । दूसरी के
जीवन में था अंधकार पूर्ण भविष्य । परन्तु संतोष इतना ,
ही था कि वह बालिका अभी उससे अपरिचित थी। दोनों
की दिनचर्या ( साठ और दस वर्ष की अवस्थाओं को
दिनचर्या ) एक सी ही संयम पूर्ण और कठोर थी ।
चेचारी बालिका में जानती थी अभी उसके जीवन में सुंयम
और यौवन के साथ युद्ध छिड़ेगा ।।
इस घटना को हुए प्रायः इस वर्ष बीत गये । डाक्टर साहब उस शहर को अपनी प्रैक्रटिस के लिए अपर्याप्त समझ कर एक दूसरे बड़े शहर में चले गये । यहाँ उनकी डाक्टरी और भी चमकी । वे ग़रीब-अमीर सभी के लिए सलभ थे ।
बड़ा शहर था । सभा-सोसाइटियों की भी खासी धूम रहती; और हर एफ सभी सोसाइटी वाले यह चाहते कि डाक्टर मिश्रा सरीखे प्रभावशाली और मिलनसार व्यक्ति उनकी सभा के सदस्य हो जावः । किन्तु डाक्टर साहब को अपनी प्रेकटिस से कम फुरसत मिलती थी। वे इन बातों से दूर ही दूर रहा करते थे।