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[ आहुति
 


जाती, इतना थक जाती कि उस रिहर की तरफ़ आँख उठाकर देखने का भी अवसर न मिलता है।

कुन्तला के असाधारण रूप और यौवन ने वया राधेश्याम जी की ढलती अवस्था ने उन्हें अावश्यकता से अधिक असावधान बना दिया था ।

बुरा भला कैसा भी काम हो, सच की एक सीमा होती है। राधेश्याम के इस अनाचार से कुन्दला को जो मान- सिक वेदना होती हो तो थी ही ; किन्तु इसका प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर भी पड़े विना न रहा। कुंदन की तरह उसका चमकती हुअा रंग पीला पड़ गया; आंखें निस्तेज हो गई ।छै महीने की बीमार मालूम होती। वैसे ही वह स्वभाव से सुकूमार थी। अब चलने में उसके पैर कांपते; मादा हाथ-पैर में दर्दू बना रहता; जी सदा ही अलसाया रहता; खांट पर लेट जाती तो इटने की हिम्मत ही न पड़तीं। कुंतला की इस अवस्था से राधे- स्याम अनभिज्ञ हो, सो बात न थी; उन्हें सब मालूम था । कमी कभी ग्लानि और पश्चात्ताप उन्हें भले ही होता; किन्तु लाचार थे।

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