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[आहुति
 

प्रवृत्ति कविता की ओर फेरना चाहते थे। उनका विश्वास था कि कुन्तला लेखों से कहीं अच्छी कविताएँ लिख सकेगी। किन्तु अब राधेश्याम को कुन्तला के पास अखिलेश्वर का बैठना अखरने लगा था। वे कभी-कभी सोचते, शायद कुन्तला के सुन्दर रूप पर ही रीझ कर अखिलेश्वर उसके साथ इतना समय व्यतीत करते हैं। किन्तु वे प्रकट में कुछ न कह सकते थे; क्योंकि उन्होंने स्वयं ही तो उनका आपस में परिचय कराया था। कुन्तला राधेश्याम के मन की बात कुछ-कुछ समझती थी; इसलिए वह बहुत सतर्क रहती। किन्तु फिर भी यदि कभी भूल से उसके मुंह से अखिलेश्वर का नाम निकल जाता तो राधेश्याम के हृदय में ईर्षा की अग्नि भमक उठती| अब अखिलेश्वर के लिए राधेश्याम के हृदय में मित्र भाव की अपेक्षा ईर्षा का भाव ही अधिक था।

इन्हीं दिनों कुन्तला ने दो चार तुकबन्दियाँ भी की। जिनमें कल्पना की बहुत ऊँची उड़ान और भावों का बहुत सुन्दर समावेश था। किन्तु शब्दों का संगठन उतना अच्छा नहीं था। अपने हाथ के लगाए हुए पौधों में फूल आते देख कर जिस प्रकार किसी चतुर माली को प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार कुन्तला की कविताएँ देख कर

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