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बिखरे मोती
 

लेश्वर को विस्मय :और आनन्द दोनों ही हुए । अपनी खाट के पास ही कुन्तला के बैठने के लिए कुरसी देकर वे स्वयं उठ कर खाट पर बैठ गये; बोले-“कुन्तला ! तुम कैसे आ गई ? इस बीमारी में तो मैंने तुम्हारी बहुत याद की ।”

इसी समय राधेश्याम जी ने कमरे में प्रवेश किया। ‘कुन्तला कुछ भी न बोल पाई ! राधेश्याम को देखते ही अखिलेश्वर ने कहा-“आओ भाई, राधेश्याम ! आज कुन्तला आई तो तुम भी आए; नहीं तो आज आठ दिन से बीमार पड़ा हूँ, रोज ही तुम्हारी याद करता था; पर तुम लोग कभी न आए। फिर घड़ी की ओर देखकर बोले—— "आज तीन ही बजे कचहरी से कैसे लौट आए ?”

राधेश्याम ने रुखाई से उत्तर दिया--कोई काम नहीं था; इसलिये चला आया ? फिर पत्नी की ओर मुड़कर बोले–“चलो चलती हो ? मैं तो जाता हूँ ।”

अखिलेश्वर ने बहुत रोकना चाहा, पर वे न रुके; चले ही गये । उनके पीछे-पीछे कुन्तला भी चली । जाते-जाते उसने अखिलेश्वर पर एक ऐसी मार्मिक दृष्टि डाली जिसमें न जाने कितनी करुणा, कितनी विवशता, कितनी

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