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[आहुति
 

कातरता, और कितनी दीनता थी। कुन्तला चली गई; किन्तु उसकी इस करुण-दृष्टि से अखिलेश्वर की आखें खुल गई। राधेश्याम के आन्तरिक भावों को वे अब समझ सके।

घर पहुँच कर कुन्तला कुछ न बोली। वह चौके में चली गई। कुछ ही क्षण बाद उसने लौट कर देखा कि उसके लेख, कविताएं, कापियाँ, पेन्सिलें और अखिलेश्वर द्वारा उपहार में दी हुई फाउन्टेन पेन, सब समेट कर किसी ने आग लगा दी है। उसी अग्नि में अखिलेश्वर का वह प्यारा चित्र जो कुछ ही क्षण पहिले ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ा रहा था धू-धू करके जल रहा है। ऊपर उठती हुई लपटें मानों कह रही हैं कि "कुन्तला यह तुम्हारे साहित्यिक-जीवन की चिता है।"

 

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