पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/१७५

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[ अमराई
 



अली का पारा ११० पर तो था ही, बोले, फिर भी मैं आपको पहले से आगाह कर देना चाहता हूँ कि ज्यादः से ज्यादः दस मिनट लगे; नहीं तो मुझे मजबूरन लाठियांँ चलवानी ही पड़ेगी। ठाकुर साहब ने घोड़े से उतर कर अमराई में पैर रखा ही था कि उनका सात साल का नाती विजय हाथ में लकड़ी की तलवार लिए हुए आकर सामने खड़ा हो गया। ठाकुर साहब को सम्बोधन करके बोला-

दादा ! देखो भेरे पास भी तलवार है; मैं भी बहादुर बनूंगा ।

इतने ही में उसकी बड़ी वहिन कान्ती, जिसकी उमर क़रीब नौ साल की थी, धानी रंग की साड़ी पहने आकर ठाकुर साहेब से बोली-दादा ! ये विजय लकड़ी की तलवार लेकर बड़े वहादुर बनने चले हैं। मैं तो दादा! स्वराज का काम करूंगी और चर्खा चला-चला कर देश को आज़ाद कर देंगी; फिर दादी बतलाओ, मैं बहादुर बनूं कि ये लकड़ी की तलवार वाले ?”

विजय की तलवार का पहिला वार कान्ती पर ही हुआ; उसने कान्ती की ओर गुस्से से देखते हुए कहा-

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