पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/१८१

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[अनुरोध
 

मेरे प्राण••••••

एक महीना पहिले तुम्हारा पत्र आया था; तुमने लिखा था कि यहाँ का काम एक-दो दिन में निपटा कर रविवार तक घर अवश्य आ जाऊँगा ! इसके बाद सोचो तो कितने रविवार निकल गए । रोज़ तुम्हारी रास्ता देखती हूँ। उधर से आने वाली हर एक ट्रेन के समय उत्सुकता से कान दरवाजे पर ही लगे रहते हैं। ऐसा मालूम होता है। कि अब तांगा आया ! अब दरवाजे पर रुका ! और अब तुम मेरे प्राण !! आकर मुझे............क्या कहूँ । मैं जानती हूँ कि तुम अपना समय कहीं व्यर्थ ही नष्ट न करते होओगे; किन्तु फिर भी जी नहीं मानता । यदि पंख होते तो उड़कर तुम्हारे पास पहुँच जाती। तुम कब तक आओगे ? जीती हुई भी मरी से गई-बीती हूँ।

जव दो पक्षियों को भी एक साथ देखती हूँ तो हदय में हूक-सी उठती है ! क्या यह लिव सकोगे कि कब तक मझे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ? वैसे तुम्हारी इच्छा जब आना चाहो; पर मेरा तो जी यही कहता है कि पत्र के उतर में स्वयं ही चले आओ ।

—तुम्हारी
 
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