पत्र पढ़ते-पढ़ते कई बार वीणा के चेहरे पर विपाद की
एक झलक आई और चली गई। पढ़ने के पश्चात् पत्र
को उसने चुपचाप निरंजन की ओर बढ़ा दिया । निरं-
जन ने पत्र लेकर जेव में रख लिया । कुछ क्षण तक
दोनों चुपचाप बैठे रहे; फिर वही रोज का कार्यक्रम, उमर
खैयाम को रुवाइयों का अनुवाद् आरंभ हो गया ।
निरंजन शान्त और अविचल थे। किन्तु वीणा स्वस्थ
न थीं। आज वह रुवाइयों को न तो ठीक तरह से पढ़
ही सकती थी और न उनका अनुवाद ही कर सकती थी ।
निरंजन से वीणों की मानसिक अवस्था छिपी न रह सकी।
उन्होंने कहा–आज आप अनुवाद का काम रहने ही दें;
कल हो जायगा | चलिए; थोड़ी देर ग्रामोफोन सुनें ।”
वाजे में चाबी भर दी गई। रेकार्ड चढ़ा दिया गया । इन्दुबाला का गाना था ‘'सजन तुम काहे को नेहा लगाए ।” एक: दोः तीन, वीणा ने बार-बार इसी रेकार्ड को वजाया । तब तक वीणा के पति कुंजविहारी आफिस से लौटे; बोले वीणा तुमसे कितनी बार कहा कि इतनी मेहनत मत किया करो; पर तुम नहीं मानतीं । जरा अपना चेहरा तो जाकर शीशे में देखो, कैसा हो रहा है।