इसके जन्म ने तिवारी जी के निप्पुत्र होने के कलंक को वो
दिया था । कन्या का रंग गोरा चिट्टा, आखें बड़ी-बड़ी;
चौड़ा माथा और सुन्दर सी नासिका थी। उसके बाल
घने, काले और असंख्य नन्हे-नन्हे छल्लों की भाँति सिर
पर बड़े ही मुहावने लगते थे । उसका नाम रखा गया
सोना । सोना का लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से होने
लगा ।
जब सोना सात साल की हुई तो घर ही में एक मास्टर लगा कर तिवारी जी ने सोना को हिन्दी पढ़वाना प्रारंभ किया; और थोड़े ही समय में सोना ने रामायण, महाभारत इत्यादि धार्मिक पुस्तकें पढ़नी सीख लिया । गाँव के सभी लोगों ने मन की कुशाग्र बुद्धि की तारीफ की। इसके आगे, अधिक पढ़ाकर तिवारी जी को कन्या से कुछ नौकरी तो करवानी न थी; इसलिए सोना का पढ़ना वन्द करवा दिया गया ।
"अब सोना नौ साल की सुकुमार सुन्दर .वालिका थी ? उसकी सुन्दरता और मुकुमारता को देखकर, गाँव बोले कहते——"तिवारी जी ! तुम्हारी लड़की तो देहात के लायक नहीं है। इसकी विवाह तो भाई ! कहीं शहर में ही करना ! सुनते हैं, शहर में बड़ा आराम रहता है ।"