पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/१८९

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[ग्रामीणा
 
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इन सब बातों को देखकर और सोना की सुकुमारता को देखते हुए सोना की मां नन्दो ने निश्चय कर लिया था कि मैं अपनी सोना का विवाह शहर में ही करूंगी। मेरी सोना भी पैरों में पतले-पतले लच्छे और काले-काले स्लीपर पहिनेगी। चौढ़े किनार की सफ़ेद सारी और लेस लगा हुआ जाकेट पहिन कर वह कितनी सुन्दूर लगेगी, इसकी कल्पना मात्र में ही नन्दो हर्ष से विह्वल हो जाती। किन्तु सोना को कुछ ज्ञान न था; वह तो अपने देहाती जीवन में ही मस्त थी। वह दिन भर मधुबाला की तरह स्वच्छन्द फिर करती। कभी-कभी वह समय पर खाना खाने आ जाती और कभी-कभी तो खेल में खाना भी भूल जाती। सुन्दर चीजें इकट्ठी करने और उन्हें देखने का उसे व्यसन सर था। गांव में अपनी जोड़ की कोई लड़की उसे न मिलती; इसलिए किसी लड़की से उसकी अधिक मेल-जोल न था। नन्दो को सोना की यह स्वच्छन्द्-प्रियता पसन्द न थी। किन्तु वह सोना को दुबा भी न सकती थी। वह जब कभी सोना को इसके लिए कुछ कहती तो तिवारी जी उमें आड़े हाथों लेते, कहते―“लड़की है, पराए घर तो उसे

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