पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बिखरे मोती ]
 


उनकी आंँखों में आज सोना से अधिक सौभाग्यवती कोई न थी। जिस दिन सोना को ससुराल के सच गहने-कपड़े पहिनाकर नन्दो ने पुत्री का सौंदर्य निहारा तो उसका रोम- रोम पुलकित हो उठा । किसी की नजर न लग जाय, इस डर से उसने छिपाकर बोलों के नीचे एक काजल का टीका लगा दिया । जिसने सोना को देखा, वही क्षण भर तक उसे देखता रहा। सोना सचमुच में सोना ही थी ।

विदा का समय आया । मां-बेटी खूब रोई । जब सोना तिवारी जी की कमर से लिपट कर रोने लगी तो तिवारी जी का भी धैर्य जाता रहा; वे भी जोर से रो पड़े। सोना की विदा हो गई। विदा के बाद तिवारी जी को पुत्री के विछोह, का. दुःख भी था; साथ ही, साथ. आत्मसोष भी कि-पुत्री अच्छे घर व्याही गई है; सुख में . रहेगी ।

सोना ससुराल पहुँची; 'रास्ते भर तो जैसे-तैसे; किन्तु घर पहुँचने पर जब वह एक कोठरी में बंद कर दी गई,और बाहर की साफ़ हवा उसे दुर्लभ हो गई । तो उसे ससुराल का जीवन बड़ा ही कष्टमय मालूम हुआ है. अब उसे गहने-कपड़े न सुहाते थे। रह-रह कर कोठरी से बाहर

१७१