पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/१९७

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[ ग्रामीणा
 


निकलकर साफ़ हवा में आने के लिए उसका जी तड़पने लगा । स्वछन्द हवा में विचरने वाली बुलबुल की जो दशा पिंजरे में बंद होने के बाद होती है, वही दशा सोना की थी ! चार ही छै दिन में उसके गुलाबी गाल पीले पड़ गये; आंखें भारी रहने लगीं । एक दिन विश्वमोहन आफ़िस चले गये थे; सास सो रही थीं; सोना आंगन के बाहर के दरवाजे के पास चली आई। चिक को ज़रा हटा कर बाहर देखा। यहां देहात की सुन्दरता : तो न थी; फिर भी साफ़ हवा अवश्य थी। इतने दिनों के बाद क्षण भर के ही लिए क्यों न हो बाहर की हवा लगते ही सोना का चित्त प्रफुल्लित हो गया है किन्तु उसी समय एक बुढ़िया उधर से निकली। सोना को उसने चिक के पास देख लिया। आकर विश्वमोहन की मां से उसने कहा-"बहू को ज़रा सम्हाल के रखा करो । न साल, न छै महीने अभी से खड़ा हो के बाहर झांकती है। यह लच्छन कुलीन घर की बहू बेटियों को शोभा नहीं देते। विस्सु की अम्मा ! तुम्हारी इतनी उमर हो गई, आज तक किसी ने परछाई तक न देखी और तुम्हारी ही बहू के ये लच्छन ! कलजुग इसी को कहते हैं। बुढि़या तो उपदेश देकर चली गई, पर सोना को उस दिन बड़ी डांट पड़ी।

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