पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[ग्रामीणा
 

पाप जाने अनजाने मुझसे होता ही रहेगा। मेरे कारण उन्हें पद-पद पर लाँछित होना पड़े, तो मेरे इस जीवन का मूल्य ही क्या है? ऐसे जीवन से तो मर जाना ही अच्छा है। मैं घर के अंदर परदे में नहीं बैठ सकती, यही तो मेरा अपराध है न? इसी के कारण तो लोग मेरे आचरण तक में धब्बे लगाते हैं? मैं लोगों से अच्छी तरह बोलती हूँ, प्रेम का व्यवहार रखती हूँ; यही तो मुझमें बुराई है न? आज उन्हें मुझ पर क्रोध आया; उन्होंने तिरस्कार के साथ मुझे झिड़क दिया। इसमें उनका कोई क़सूर नहीं है। पत्थर के पाट पर भी रस्सी के रोज़-रोज़ के घिसने से निशान पड़ ही जाते हैं, फिर ये तो देव तुल्य पुरुष हैं। उनका हृदय तो कोमल हैं, इन अपवादों का असर कैसे न पड़ता? रामचन्द्र जी सरीखे महापुरुप ने भी तो ज़रा सी ही बात पर गर्भवती सीता को वनवास दे दिया था; फिर ये तो साधारण मनुष्य ही हैं। इन्होंने तो जो कुछ कहा, ठीक ही कहा। पर इसमें मेरा भी कौन सो दोष है? किन्तु जब उन्हीं के हृदय में सन्देह ने घर कर लिया तो मैं तो जीती हुई भी मरी से गई बीती हूँ। इसी प्रकार अनेक तरह के संकल्प-विकल्प सोना के मस्तिष्क में आए और चले गए।