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[ भग्नावशेष


होती दीख पड़ीं। उनकी चाल-ढाल तथा रूप-रेखा से ही असीम लज्जा एवं संकोच का यथेष्ट परिचय मिल रहा था। किसी प्रकार उन्होंने भी अपनी कविता शुरू की। अक्षर-अक्षर में इतनी वेदना भरी थी कि श्रोतागण मंत्र-मुग्ध-से होकर उस कविता को सुन रहे थे। वाह-वाह और ख़ूब-ख़ूब की तो बात ही क्या, लोगों ने जैसे सांस लेना तक बन्द कर दिया था; मेरा रोम-रोम उस कविता का स्वागत करने के लिए उत्सुक हो रहा था।

एक बार इस मूर्तिमती प्रतिभा का परिचय प्राप्त किए बिना उस नगर से चले जाना अब मेरे लिये असम्भव-सा हो गया। अतः इस निश्चय के अनुसार मैंने अपना जाना फिर कुछ समय के लिये टाल दिया।

[ ३ ]

उनका पता लगा कर, दूसरे ही दिन, लगभग आठ बजे सवेरे मैं उनके निवास-स्थान पर जा पहुँचा और अपना ‘विजिटिंग कार्ड' भिजवा दिया। कार्ड पाते ही एक अधेड़ सज्जन बाहर आए, और मैंने उनसे उत्सुकता से पूछा “क्या श्रीमती......जी घर पर हैं?”