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[ भग्नावशेष
 

मैंने कहा, "हां, हूं तो मैं ही, पर आपने कविता लिखना क्यों छोड़ दिया है?"

अब उनके संयम का बाँध टूट गया। उनकी आँखों से न जाने कितने बड़े-बड़े मोती बिखर गये। उन्होंने रुंधे हुए कंठ से कहा, “लिखने पढ़ने की बाबत अब आप मुझसे कुछ न पूछें।”

इतने ही में एक तरफ से एक अधेड़ पुरुष आए। और आते ही शायद, उनके पास का मेरा खड़ा रहना उन सज्जन को न सुहाया; इसीलिए उन्हें बहुत बुरी तरह से झिड़क कर बोले——“यहाँ खड़ी-खड़ी बातें कर रही हो; कुछ ख़याल भी है?"

वे बोलीं—"ये मेरे पिता जी के........." वह अपना वाक्य पूरा भी न कर पाई थीं कि वे महापुरुष कड़क उठे—"चलो भी; परिचय फिर हो लेगा।"

उन्होंने मेरी तरफ एक बड़ी ही बेधक दृष्टि से देखा; उस दृष्टि में न जाने कितनी करुणा, कितनी विवशता, और कितनी कातरता भरी थी। वे अपने पति के पीछे-पीछे चली गईं।

प्लेटफार्म पर खड़ा मैं सोचता हूँ कि ये वही हैं या उनका भग्नावशेष!

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