सिगरेट को एक और फेंकते हुए, वे कुरसी खींच कर बैठ गये। भय-भीत हरिणी की तरह पति की ओर देखते हुए करुणा ने पूछा—"दो दिन तक घर नहीं आए, क्या कुछ तबियत खराब थी? यदि न आया करो तो ख़बर तो भिजवा दिया करो। मैं प्रतीक्षा में ही बैठी रहती हूँ।”
उन्होंने करुणा की बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया। जेब से रुपये निकाल कर मेज पर ढेर लगाते हुए बोले,——“पंडितानी जी की तरह रोज़ ही सीख दिया करती हो कि जुआ न खेलो, शराब न पियो; यह न करो, वह न करो। यदि मैं जुआ न खेलता तो आज मुझे इतने रुपये, इकठ्ठे कहाँ से मिल जाते? देखो, पूरे पन्द्रह सौ हैं। लो, इन्हें उठाकर रखो, पर मुझ से बिना पूछे इसमें से एक पाई भी खर्च न करना, समझीं!!"
करुणा जुए में जीते हुए रुपयों को मिट्टी समझती थी। गरीबी से दिन काटना उसे स्वीकार था; परन्तु चरित्र को भ्रष्ट करके धनवान बनना उसे प्रिय न था। वह जगत प्रसाद से बहुत डरती थी, इसलिए अपने स्वतंत्र विचार वह कभी भी प्रकट न कर सकती थी। उसे इसका अनुभव कई बार हो चुका था। अपने स्वतंत्र