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बिखरे मोती ]


विचार प्रकट करने के लिए उसे कितना अपमान, कितनी लांच्छना और कितना तिरस्कार सहना पड़ा था! यही कारण था कि आज भी वह अपने विचारों को अन्दर-ही अन्दर दवा कर दबी हुई जबान से बोली-“रुपया उठाकर तुम्हीं न रख दो? मेरे हाथ तो आटे में भिड़े हैं।” करुणा के इस उत्तर से जगत प्रसाद क्रोध से तिलमिला उठे और कड़ी आवाज से पूछा—

“क्या कहा?"

करुणा कुछ न बोली, नीची नजर किए हुए आटा सानती रही। इस चुप्पी से जगत प्रसाद का पारा ११० पर पहुँच गया। क्रोध के आवेश में रुपये उठा कर उन्होंने फिर जेब में रख लिये—“यह तो मैं जानता ही था कि तुम यही करोगी। मैं तो समझा था इन दो-तीन दिनों में तुम्हारा दिमाग ठिकाने आ गया होगा। ऊट-पटांग बातें भूल गई होगी और कुछ अकल आ गई होगी; परन्तु सोचना व्यर्थ था। तुम्हें अपनी विद्वत्ता का घमंड है तो मुझे भी कुछ है। लो, जाता हूँ; अब रहना सुख से"— कहते-कहते जगत प्रसाद कमरे से बाहर निकलने लगे।

पीछे से दौड़कर करुणा ने उनके कोट का सिरा पकड़

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