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[ होली
लिया ओर विनीत स्वर में बोली—"रोटी तो खालो! मैं रुपये रखे लेती हूँ। क्यों नाराज होते हो?" एक जोर के झटके के साथ कोट को छुड़ाकर जगत प्रसाद चल दिये। झटका लगने से करुणा पत्थर पर गिर पड़ी और सिर फट गया। खून की धारा बह चली, सारी और
जाकेट लाल हो गई।
३
संध्या का समय था। पास ही बाबू भगवती प्रसाद जी के सामने वाली चौक से सुरीली आवाज आ रही थी।
"होली कैसे मनाऊँ?
"सैंया विदेश, मैं द्वारे ठाढो़, कर मल-मल पछताऊँ।"
होली के दीवाने भंग के नशे में चूर थे। गानेवाली नर्तकी पर रुपयों की बौछार हो रही थी। जगत प्रसाद को अपनी दुखिया पत्नी का खयाल भी न था। रुपया बरसाने वालों में उन्हीं का सब से पहिला नम्बर था। इधर करुणा भूखी-प्यासी, छटपटाती हुई चारपाई पर करवट बदल रही थी।
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