[पापी पेट
मारे रंज के उनका सिर दुखने लगा था ! बख्तावर सिंह
राजपूत थे। उन्होंने टॉड का राजस्थान पढ़ा था! राजपूतों
की वीरता की फड़काने वाली कहानियाँ उन्हें याद थीं।
चितौड़ के जौहर, जयमल और फत्ता के आत्म-बलिदान
और राणा प्रताप की बहादुरी के चित्र उनके दिमाग में
रह-रह के चमक उठते थे। सोचते थे कि मैं समस्त
राजपूत जाति की वीरता का वारिस हूँ। उनका सदियों
का संचित गौरव मुझे प्राप्त है । मेरे पूर्वजों ने कभी निहत्थों
पर शस्त्र नहीं चलाए, मैंने आज वह क्या कर डाला ?
ऐसे मारने से तो मर जाना अच्छा। पर पापी पेट जो
न करावे सो थोड़ा।
इसी संकल्प-विकल्प में पड़कर उन्होंने रात को भोजन भी नहीं किया। आख़िर भोजन करते भी तो कैसे ? उस घायल बच्चें का रक्त-रंजित कोमल शरीर, उसकी सकरुण चीत्कार और उसकी हृदय को हिला देनेवाली निर्दोष, प्रश्नपूर्ण दृष्टि का चित्र उनकी आँखों के सामने रह-रहकर खिच जाता था। उसकी याद उनके हृदय को टुकड़े-टुकड़े किए डालती थी। इस प्रकार दुखते हुए हृदय को दबाकर वे कदमो गए, कोन जाने ?