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बिखरे मोती]

प्रकार का व्यवहार रखती है, प्रेम से बातचीत करती है। तो वह स्त्री भ्रष्टा है, चरित्र-हीना है, नहीं तो पर पुरुष से मिलने-जुलने का और मतलब ही क्या हो सकता है ? खैर, ने तो मुझे समाज से कुछ लेना-देना है, न समाज से कुछ सरोकार । समाज ने तो मुझे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर दूर फेंक दिया है। फिर मैं ही क्यों समाज की परवाह करूँ ?

मेरे माता-पिता साधारण स्थिति के आदमी थे । परिवार में माता पिता के अतिरिक्त मुझसे बड़े मेरे तीन भाई और थे। मैं सब से छोटी थी । छोटी होने के कारण घर में मेरा लालन-पालन बड़े लाड़ प्यार में हुआ था । मेरे दो भाई बनारस हिन्दू-युनीवर्सिटी में पढ़ते थे और दोनों से छोटा राजन मैट्रिक में पढ़ रहा था। मेरे पिता जी संस्कृत के पूरे पंडित थे और पुरानी रूढ़ियों के कट्टर पक्षपाती । यहां तक कि वे मेरा विवाह नौ साल की ही उमर में करके गौरीदान के अक्षय पुण्य के भागी बनना चाहते थे। कई लोगों के और विशेषकर मेरे भाइयों के विरोध के कारण ही वे ऐसा न कर सके थे।

जब मैं पाँचवीं अँगरेज़ी में पढ़ रही थी और मेरी

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