बिखरे मोती]
जैसे मैं हवा में उड़ी जा रही हैं। सत्ताइस मील तक मोटर पर बैठने के बाद भी जी न भरा था। यही चाहती थी कि रास्ता लम्बा होता जाय और मैं मोटर पर घूमा करूं ।
किन्तु यह क्या संभव था ? आखिर को एक बड़े भारी
महल के ज़नाने दरवाजे पर मोटर जाकर खड़ी हो गई।
सास तो थी ही नहीं, इसलिए मेरी जिठानी बड़ी रानी जी परछन करके मुझे उतार ले गईं । मुझे एक बड़े भारी
सजे हुए कमरे में बिठाल दिया गया, और स्त्रियां बारी-बारी से मेरा मुँह खोल-खोल के देखने लगीं । कोई रुपया, कोई छोटे-मोटे जेवर या कपड़े मेरी मुँह-दिखाई में दे-देकर जाने लगीं। मेरी जिठानी बड़ी रानी ने भी मेरा
मुँह देखा; कुछ बोली नहीं; ‘उँह' करके मेरी अँगुली में एक अँगूठी पहिना दी। मैंने सुना कि वे पास ही के किसी कमरे में किसी से कह रही थी-देखा बहू को ? क्या तारीफ़ के पुल बंध रहे थे ? ससुर जी के कहने से तो बस यही मालूम होता था कि इन्द्र की अप्सरा ही होगी ? पर न रूप, न रंग, न जाने क्यों सुन्दर कह-कह के कंगले की बेटी व्याह के अपनी इज्ज़त हलकी की । रोटी-बेटी का व्यवहार
तो अपनी बराबरी वालों ही में होता है, बिरजू की माँ! पर ससुर जी तो इसके रूप पर बिलकुल लट्टू ही हो गये थे। मैं