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बिखरे मोती ]


थी । बिना कुछ सोचे-विचारे मैं गाड़ी के एक जनाने डिब्बे में बैठ गई। गाड़ी कितनी देर तक चलती रही,कहाँ-कहाँ खड़ी हुई, कौन-कौन से स्टेशन बीच में आए, मुझे कुछ पता नहीं; किन्तु सवेरे जब ट्रेन कानपूर पहुँच कर रुक गई और एक किसी रेलवे कर्मचीरी ने आकर मुझे उतरने को कहा तो मैं जैसे चौंकसी पड़ी । मैंने देखा, सारी ट्रेन यात्रियों से खाली हो गई है, स्टेशन पर भी यात्री बहुत कम थे। ट्रेन पर से उतर कर मेरी समझ में ही न आता था कि कहाँ जाऊँ । कल इस समय तक जो एक महल की रानी थी, आज उसके लिये खड़े होने के लिए भी स्थान न था। बहुत देर बाद मुझे एकाएक ख्याल आया कि सत्याग्रह-संग्राम तो छिड़ा ही हुआ है। क्यों न मैं भी चलकर स्वयं-सेविका बन जाऊँ और देश-सेवा में जीवन बिता दूँ। पूँछती हुई मैं किसी प्रकार कांग्रेस-दफ़तर पहुँची । वहाँ पर दो-तीन व्यक्ति बैंठे थे, उन्होंने मुझसे पूछा कि मेरे पास किसी कांग्रेस कमेटी का प्रमाण-पत्र है ? जब मैंने कहा 'नहीं।' तब उन्होंने मुझे स्वयं-सेविका’ बनाने से इन्कार कर दिया । इसके बाद इसी प्रकार मैं कई संस्थाओं और सुधारकों के दरवाजे-<br

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