पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

मझली रानी ]


दरवाजे भटकी किन्तु मुझे कहीं भी आश्रय न मिला । विवश होकर मैं भूख-प्यासी चल पड़ी, किन्तु जाती कहाँ ? थक कर एक पेड़ के नीचे बैठ गई। मैंने अपनी अवस्था पर विचार किया ! मैं आज रानी से पथ की भिखारिणी हो चुकी थी; मेरे सामने अब भिक्षावृत्ति को छोड़ कर दूसरा उपाय ही क्या था ? इसी समय न जाने कहाँ से एक भिखारिणी बुढि़या भी उस पेड़ के नीचे कई छोटी- छोटी पोटलियाँ लिए हुए आकर बैठ गई । बडे़ इतमीनान के साथ अपने दिनभर के माँगे हुए आटे, दाल, चावल को अपने चीथड़े में अच्छी तरह बाँध कर बुढ़िया ने मेरी तरफ देखा । मैंने भी उसकी ओर देखा । दुःख में भी एक प्रकार का आकर्षण होता है जिसने क्षण भर में ही हम दोनों को एक कर दिया । भिखारिणी बहुत बुढी थी, उसे आँख से भी कम दिख पड़ता था। भिक्षा-वृत्ति करने के लिए अब उसे किसी साथी या सहारे की जरुरत थी। मैं उसी के साथ रहने लगी ।

कई बार मैंने आत्म-हत्या करना चाही किन्तु उस तरफ से मालूम होता कि जैसे कोई हाथ पकड़ लेता हो कि अब इगत भी न कर सकी । लगातार एक साल हैं। जब मै स्टेशन

५०