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बिखरे मोती ]


तक भिखारिणी के साथ रह कर भी मुझे भीख मांगना ना आया । आता भी तो कैसे ? अतएव मैं बुढ़िया का हाथ पकड़ कर उसे सहारा देती हुई चलती, और भीख वही मांगा करती । मैं जवान थी, सुन्दर थी, फटे-चीथड़े और मैले-कुचैले वेष में भी,मैं अपना रूप न छिपा सकती और मेरा रूप ही हर जगह मेरा दुश्मन हो जाता । अपने सतीत्व की रक्षा के लिए मुझे बहुत सचेत रहना पड़ता था और इसीलिए मुझे जल्दी-जल्दी स्थान बदलना पड़ता था।


मेरे बदन की साड़ी फट कर तार-तार हो गई थी; वदन ढकने के लिए साबित कपड़ा भी न था। प्रयाग में माघी अमावस्या के दिन बड़ा भारी मेला लगता हैं। बुढ़िया ने कहा वहाँ, चलने पर हमें ३,४ महीने भर के खाने को मिल जायेगा और कपड़ों के लिए पैसे भी मिल जायगे । मैं बूढ़ी के साथ पैदल ही प्रयाग के लिए चल पड़ी।


माँगते-खाते कई दिनों में हम लोग प्रयाग पहुँचे । यहाँ पूरे महीने भर मेला रहता है । दूर-दूर के बहुत से यात्री आते हैं। हम लोग रोज सड़क के किनारे एक कपड़ा बिछाकर बैठ जाते; दिन भर भिक्षा माँगकर शाम को एक पेड़ के नीचे अलाव जलाकर सो जाते ।

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