पृष्ठ:बिरजा.djvu/१९

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 का रूप लावण्य साधारण था। बिरजा दीर्घकाया थी नवीन खर्वकाया थी। बिरजा की नासिका ने भू युगल को मध्यस्थल में जितना स्थान चाहिये उतना स्थान अधिकार कर लिया था, और उतनी ही उच्च थी, किन्तु नवीन की नासिका कुछ अधिक उच्च थी। बिरजा के दोनों नेत्र वृहद दीर्घाकार थे, नवीन के दोनों नेत्र और भी बड़े थे, किन्तु कलकत्ते की काली प्रतिमा की चक्षु की न्याय प्रायः कर्ण पर्यन्त विस्तृत थे। यदि इन्हीं को कवि लोग आकर्णवि चान्त चक्षु कहते हों, तो हम इसमें कुछ सौन्दर्य नहीं देखते। बिरजा का कपाल समतल था, किन्तु नवीन का उच्च था। बिरजा का ग्रीवादेश दीर्घ था, जिसे हंसग्रीवा कहते हैं, किन्तु नवीन का ग्रीवादेश हस्व था। अन्यान्य विषयों में दोनों का रूप समानही था। दोनों के केशदाम नितम्बचुम्बित, दोनों की बाँह मृणाल सनिभ, दोनों की अँगुली सुकोमल पद्मकलिका सदृशी, और दोनोंही की देह में नवयौवन का संपूर्ण आविर्भाव था, किन्तु स्वभाव के विषय वैलक्षण्य था। दोनों एकत्र वास करती थीं, अ- कृत्रिम प्रणय था, पर स्वभाव दोनों का एकसा नहीं था। बिरजा मिष्टभाषिणी थी, नवीन भी मिष्टभाषिणी थी किन्तु जिस स्थल पर उचित बात कहने से दूसरे के मन में कष्ट होता हो बिरजा उस स्थान पर कोई बात नहीं कहती थी