पृष्ठ:बिरहवारीश माधवानलकामकंदला.djvu/१२८

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१०० बिरहबारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषा। पनि द्विजके घरदेह नादवेद सो दुज्जयुत ॥ चौ० मनुज जन्म पाक्त नहिं कोई । मनुज भयोतो विप्रनहोई॥ होहि विप्रतो नादन जाने । बेद जाननहिं नादबखाने । जो कदापि पुनि रागहिपावै । तो अस रूप न कोऊपावै ॥ तो कहँ विधिने सबही दीन्हीं। पूरवबड़ी तपस्याकीन्हीं॥ सो० निगम कही यहरीति चित बित दीजै पात्रको। करि वेश्यारत प्रीति ऐसे बदन न खोइये ॥ दंडक । जाके सतसंग पाय चलत निर्वानऐसी नैया भवसिं धुमें न दूसरी लखात है । ताही नरदेह सों सनेह तू करतनाहिं श्यामा श्याम ध्याइबेकी येही अवखातहै ॥ बोधा कबि फेरया- को पायवो कठिन बड़ी कठिन यों याही थोरेकपटी रिसात है। ऐसी प्राणप्यारी इहिवारी तू मेरे कहे राखत बने तो राखजात है पैजातहै। (माधौवचन) चौ. व्यभिचारी व्यभिचारी चाहत । ज्वारी २ प्रीति निबाहत।। रसिकनरन केमन जनायक । बसत सहितगोपिन सुखदायक।। रस वंत ब्रह्म निगम मति गावत । ताकहँ योग यज्ञकोपावत ॥ सोरासहस नायका गावै । योगी जड़मति सो क्यों पावै ॥ छप्पय । मच्छरूप बीभत्स कच्छ वत्सलरस जानी। भयेस्व रूप बराह रुदनरसिंह बखानी ॥ बामन अद्भुत रूप बीर भृगुनं- द ताहि गनि । करुणा मय रघुनाथ कृष्ण शृंगार देव भनि ।। निर्वध बोध बाधा सुकविलहि कलंक परहासरिषु । सहित इष्ट गावत निगम दसरसमय रसवंतपुरुष । सो. नादवेद रतिरंग सुन्दरता अनभव विभव । येलखि जिन के अंग तिनहींमें ब्रजराज नितः ।। दो. मगन रहत रतिरंगमें गाक्त रस श्रृंगारं । टेकही ब्रजराजने सोई मेरो यार ॥ कला चौ. में अपने जिययहै विचारी । मतबैकुंठकंदलानारी ॥