पृष्ठ:बिरहवारीश माधवानलकामकंदला.djvu/८३

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विरहनारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषा। बिलमो तहां एक पखवारा । पुनि माधो उठिपंथ पधारा॥ विरही तपै कहुं कलनहिं पावै । सुखकी चाह फेर उठिधावै। अन एक आरण्य लुहाई । देखी विटपनकी समुदाई। दो० फूले फरेहरेलखे उपवन विपिन समाज। उनमादी माधोभयो सुमिरि अग्र ऋतुराज ॥ इतिश्रीमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषाचिरहीसुभानसम्बादे शापखंडेएकादशतरङ्गः ११॥ इश्कसहेलीनाम ॥ अथ प्रसङ्ग । (बारहवांतरंग प्रारम्भः) चौ शुकसों को विप्र अकुलाई। मोहिंभावदीकीसुधिआई। कैसे कहां होयगी प्यारी। नवयोवन बाला सुकुमारी ।। खेलत कहूं सखिन के माहीं। मेरी याद करै कै नाहीं॥ ऐसी छवि कब देखन पाऊं । किहि उपाय पुहपावति जाऊं।। विरह रूप विपरीत न बाढ़ी। हिये मनोताई के काढ़ी। कामकथन सब जानत सोई । बड़ी रीझ की विरहिन होई । है प्रवीन लीलापति जैसी। मजेदार बनिताको ऐसी ॥ यो गुण कथन माधवा गायो। विरह बूड़ि विरही फिर आयो। छंदपधारिका। इकनाउन राबिसुता तीर । तहँलखी विष बनि- तानभीर। लखि विकट ठौर गो निकट आइ। अति विकल चि- त्तनहिं कल पराइ ॥ इश्क बाग तहलखि अतिप्रवीन तहक्षिण विष परवेश कीन ॥ निज दरदकयो सब द्रुमन पाहि । मृगमी. नआदि जो मिलत जाहिं ।। दो कानन का तड़ाग तरु खग मृग मानवमीन । असकोजिहिदिज माधवा प्रियकीसुधिबूझीन॥ कहतद्रुमनसों तुमनहोसुमनसहित छवि दार। कदीयार मेरो लख्यो तो छवि अजब बहार ।। चौ. विटपनअपनोदरदसुनावै । जबचलिछाहँकिसीकीआवै॥