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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर को फटकार बतलाती है, और उधर नायक से भी कोई ऐसी बात नहीं कहती कि, यदि वह उस पर अनुरक़ न हो तो, उसे यह कह बैठने का अवसर मिले कि मैं तो यह नहीं चाहता । इन दोन ही बात पर ध्यान रखती हुई वह अपना अभीष्ट श्लेष-द्वारा व्यंजित करती है ॥ घाम घरीक निवारियै, कलित ललित अलि-पुंज।। जमुना-तीर तमाल-तरु-मिलित मालती-कुंज ॥ १२७ ॥ ( अवतरण )-स्वयंदूतिका नायिका वचन-चातुरी से अपना अभिप्राय नायक पर व्यंजित करती हुई उसको रमणोपयुक्त स्थान बतलाती है, और यह व्यंजित करती है कि आप वहाँ चख कर ठहरिए, मैं आती हैं | ( अर्थ )-यमुना के तौर पर तमाल-तरु से मिले हुए, [ और ] ललित ( सुंदर ) अलि-पुंज (भ्रमरों के समुह ) से कलित ( मढ़े हुए ) मालती-कुंज मैं ! विश्राम कर के आप इस दुपहरी की कड़ी ] घाम का घड़ी भर निवारण कीजिए ॥ । ‘यमुना-तीर' कह कर वह यह व्यंजित करती है कि मैं वहाँ जल भरने आऊँगी । "कलित ललित अलि-पुंज' कह कर वह यह सूचित करती है कि वह स्थान निर्जन है, क्याँक यदि उस ओर मनुष्य का आना जाना होता, तो भरों का समूह का समूह उस कुंज पर कलित (जड़ा हुआ सा ) न रहता ॥ ‘तमाल-तमिलित मालती-कुंज' कह कर वह यह व्यंजित करती है कि वह स्थान स्त्री और पुरुष के मिलने के निमित्त परमोपयुक़ है, क्योंकि वहाँ, मनुष्य की कौन कहे, ‘तमाल-तरु’ तथा मालती भी आपस में लिपटे हुए हैं। इसी खंड-वाक्य से वह नायक का ध्यान प्री-पुरुष-सम्मेलन की ओर आकर्षित कर के उसके चित्त मैं अपने से मिलने की अभिलाषा भी उद्दीपित करती है ।। ‘घाम घरीक निवारियै', इस खंड-वाक्य से वह जल लेने जाने का समय व्यंजित करती है। उन हरकी हँसि कै, इतै इन सौंपी मुसकाई । नैन मिलै मन मिलि गए दोऊ, मिलवत गाइ ॥ १२८ ॥ (अवतरण )–नायक सबेरे अपनी गाएँ ले कर चराने चला । नायिका भी अपनी गाय उसी के समह में मिलाने लगी । उसी समय दोन के नयन मिले, और नयन मिलते ही मन भी मिल गए। इसी अवसर का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-[ उधर ] उन्हेंाँने ( नायक ने ) [ तो ] हँस कर हरकी ( नायिका की गाय को अपनी गायों के समूह में मिलने से रोका ), [ और] इधर इन्होंने ( नायिका ने) मुसकिरा कर [ अपनी गाय उनको ] सौंपी । गायों के [ इस प्रकार ] मिलाते समय आँस्यों के मिलने से दोनों मन मिल गए ॥ | १. सहि (५) । २. उतै उन ( ४ ) । ३. सोपिय ( ४ ) । ४. मुसिकाइ (१), मुसुकाइ (४), मुसक्याइ (५)।