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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर अव्यय मात्र है । किसी किसी टीकाकार ने ‘साईं-सर-कच' को एक समस्त पद मान कर उसका अर्थ पति के सिर के बाल किया है । वह भी अर्थ हो सकता है। पर हमारी समझ में यहां साईं को खेदोद्गार-बोधक अव्यय मानना अच्छा है । बीत्यौ= बीता हुआ, समाप्ति पर आया हुआ । यह शब्द 'कपासु' शब्द का विशेषण है । 'बीत्यौ कपासु' का अर्थ समाप्ति पर आया हुआ कपास होता है । कपास की रुई तीन बार चुनी जाती है—पहिली बार क्वार में, दूसरी बार अगहन में और तीसरी बार चैत्र में । तीसरी बार रुई चुनने के पश्चात् खेत काट डाला जाता है । अतः बीत्यौ कपास का अर्थ तीसरी बार की रुई होता है । इसी अंतिम बार की रुई का बिनना अनुशयाना नायिका के विषाद का कारण हो सकता है, क्योंकि इसके पश्चात् खेत कट जाने से उसका संकेत नष्ट हो जायगा ।। कपासु= एक प्रकार की रुई का वृक्ष । यह प्रचलित भाषा में स्त्रीलिंग माना जाता है । पर ज्ञात होता है कि बिहारी के समय में यह शब्द संस्कृत ‘कर्पास' की भांति भाषा में भी पुल्लिंग ही माना जाता था । ( अवतरण ) • इस दोहे की नायिका अनुशयाना है । इसका संकेतस्थल कपास के खेत में है। अतः कपास की अंतिम उपज बीनने के समय, यह विचार कर कि अब कपास का खेत काट डाला जायगा, उसको बड़ा दुःख होता है । उसके इसी दुःख का वर्णन उसकी कोई अंतरंगिनी सखी किसी अन्य अंतरंगिनी सखी से खेद-पूर्वक करती है | ( अर्थ )-[ देखो, यह बेचारी ] फिर फिर दुखी हो कर देखती है, [ और ] फिर फिर लंबी साँस भरती है। हे भगवान् ! [ यह ] समाप्ति पर आया हुआ कपास सिर के श्वत बालों की भाँति [ अत्यंत कष्ट पा कर ] चुनती है ( जिस प्रकार लोगों को श्वेत बाल चुनते समय यह समझ कर दुःख होता है कि अब काम-क्रीड़ा के दिन समाप्त हो रहे हैं, उसी प्रकार इसको, कपास की अंतिम उपज चुनने के समय, यह सोच कर विषाद होता है कि अब शीघ्र ही उपपति से विहार करने का संकेत नष्ट हो जायगा ) ॥ डगकु डगति सी चलि, ठटुंकि चितई, चली निहारि । लिए जाति चितु चोरटी वैहै गोरठी नारि ॥ १३९ ॥ डगकु=एक आध डग अर्थात् पग ॥ ( अवतरण )–नायक सखी से नायिका के हावभाव का वर्णन करता हुआ अपना अनुराग प्रकट करता है ( अर्थ )-दो एक डग डगमगाती सी ( साविक के कारण उलझती सी ) चाल चल कर, [ और फिर ] ठिठक कर [ जिसने इधर उधर ] देख लिया [ कि कोई देखता तो नहीं है, और फिर मुझे ] देख कर चली, वही चोरटी ( चित्त को चुराने वाली ) गोरी नारी [ मेरा] चित्त लिए जा रही है । करी विरह ऐसी, तऊ गैल न छाड़तु नीचु । दीनैं हूँ चसमा चखनु चाहै लहै न मीच ॥ १४० ॥ मीशु मृत्यु ॥ १. ठिठुकि (१)। २. यहै ( १, ५)। ३. दियॆ (२), दीए (५) । ४. ऊँ (४, ५) । ५. लहत (४)।