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बिहारी-रत्नाकर

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বিহাৰী-ল্পান্ধৰ अति अगाधु, अति औथरौ नदी, कृपु, सरु, बाइ । सो ताकौ सागर, जहाँ जाकी प्यासँ बुझाइ ।। ४११ ।। अगाधु = अथाह ॥ औथरौ= छिछला । वाइ ( वापी )= बावली ॥ ( अवतरण )–कवि की प्रास्ताविक उकिं है कि जिससे जिसका अभीष्ट सध जाय, वही उसके निमित्त सब कुछ है, चाहे वह बड़ा हो अथवा छोटा ( अर्थ )-नदी, कूप, सर, वापी [ कुछ भी हो, और वह भी चाहे ] अति अगाध [ हो अथवा ] अति औथरा; जिसकी प्यास जहाँ (जिस जलाशय से) बुझे, वही उसको ( उसके लिये ) सागर है ॥ कपट सतर मैं हैं करीं, मुख अनसें हैं बैन । सहज हहैं जानि कैसे करति न नैन ॥ ४१२ ॥ सतर=कड़ी, तर्जन-युक्त । अनखाह = क्वाधयुत ।। ( अवतरण )-नायिका ने लीजा तथा परिहास के निमित्त कपट-मान किया है ; पर यह समझ कर कि मेरी आँखें स्वभावतः हँसीली हैं, वह उनको नायक के सामने नहीं करती । वह समझती है कि यदि मैं नायक से अखें मिलाऊँगी, तो इनमें हँसी आ जायगी, और यह मान का दौंग खुल जायगा । सखी-वचन सखी से - | ( अर्थ )-कपट से [ अपनी ] भौहें [ तो इसने 1 सतर ( तनेनी ) कर ली हैं, [ और ] मुख में अनखांहें ( अप्रसन्नता-सूचक) वचन [ किए, अर्थात् वसा रक्ख, हैं ] । [पर अपने ] नयनों को सहज ( स्वभाव ही से) हसाहें ( हँसोड़ ) जान कर [ नायक के ] सामने नहीं करती ॥ मानहु बिधि तन-अच्छछवि स्वच्छ राखिमैं काज । दृग-पग-पोंछन क करे भूषन पायंदाज ।। ४१३ ।। पायंदाज (फा० ) = पावदान, वह टाट जो स्वच्छ बिछौने के पास बिछा दिया जाता है, जिस पर पैर पोंछ कर लोग बिछौने पर जाते हैं, जिसमें बिछौना मैला न हो ॥ ( अवतरण )-नायिका के शरीर की गुराई की प्रशंसा सखी नायक से करती है| ( अर्थ )--[ उसके शरीर की शोभा ऐसी उज्ज्वल है कि उसके आगे कनक के भूषण ऐसे जान पड़ते हैं, जैसे स्वच्छ बिछौने के आगे पायंदाज; अतः यह जान पड़ता है। कि ] मानो विधाता ने [ उसके] तन की ‘अच्छ' ( उज्ज्वल ) छवि को स्वच्छ (विमल ) रखने के निमित्त आँखों के पावों को पोंछने के लिये भूषण पायंदाज़ ( पाँव-पुछने ) किए ( बनाए हैं ) ॥ -- --- १. श्रौतरौ ( ३, ५ ) । २. तहाँ ( २ ) । ३. ताकी ( २ ) । ४. तृr ( ३, ५ ) । ५. कः (१,२,४ ) । ६. किए ( ३, ५ ) |