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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर विरह-विकल बिनु ही लिखी पाती दई पठाइ । आँक-बिहूनीयौ सुचित सूनै बाँचेत जाइ ।। ५२६ ॥ आँक-विहूनी= अक्षरों से रहित । ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका तथा प्रोषित नायक, दोन की विरह-विकलता नायिका की पत्रिका के जाने वाली दूती अपने मन मैं कहती है ( अर्थ )-[ उधर नायिका की तो यह दशा है कि उस ] विरह-विकल ने [ नायक को चिट्ठी लिखना चाहा; पर जब विकलता के कारण न लिख सकी, ते ] विना लिखी ही ‘पात' ( पत्रिका ) भेज दी । [ इधर नायक की यह दशा है कि यह ] विना अक्षर की [ पत्रिका ] भी ‘सूनँ' ( एकांत में ) जा कर [ और ] सुचिनु हो कर ( बड़े ध्यान से ) बाँचता है । इस दोहे के भाव से ६० तथा ३२८-संख्यक दोहाँ का भाव मिलने के योग्य है ॥ समरस-समर-सकोच-बस-बिबस न ठिक ठहराइ । फिरि फिरि उझकति, फिरि दुति,रि दुरिउझकति आइ ॥५२७॥ ( अबतरण )-- परकीया नायिका नायक को अपनी खिड़की में से देख कर काम-पीड़ित हुई है, पर संकोचवश एकाएक आँख भर कर नहीं देख सकती। अतः वह कभी तो उझक कर देखती है, और कभी नायक को अपनी ओर देखता देख कर छिप जाती है, और फिर अन्य लोग की दृष्टि बचाकर देखती है ( अर्थ )-बयर के स्मर [ तथा ] संकोच के वश में [पड़ कर ] विवश हुई [ वह नायिका किसी एक दशा में ] ठीक नहीं ठहरती। फिर फिर (वारंवार )[ नायक को देखने के निमित्त झरोखे में ] उझकती है, [ और ] फिर छिप जाती है, [ इसी प्रकार वह ] छिप छिप कर ( लोगों की तथा नायक की दृष्टि बचा बचा कर ) [ झरोखे में ] आ कर उझकती है ॥ इस नायिका के मध्य स्वकीया भी मान सकते हैं। | फिरत जु अटकत कटनि-बिनु, रसिक, सुरस न, खियाल। अनत अनत नित नित हितनु चिते सकुचत कत, लाल ।। ५२८॥ ( अवतरण ९. )-नायिका नायक को अन्य सिर्यों के साथ हँसते बोलते देख कर कुछ रुष्ट हुई है, जिस पर नायक ने उससे कहा है कि मैं उन स्त्रियाँ से कुछ प्रेम-संबंध से बातचीत नहीं करता था, प्रत्युत केवल आमोद प्रमोद मैं उलझा था । यह कहते समय नायक का मने अपनी नावटी बात पर कुछ संकुचित हुआ । यह संकोच उसकी चेष्टा से लक्षित कर के एवं सच्ची बात निद्धारित कर के नायिका कहती है १. अंक ( २ ) । २. बाँचति ( २,४ ) । ३. झुकति ( ४ ) । ४. दुर उझकत फिरि आइ (४) । ५. कत सकुचावत लाल ( २ ), चित संकुचित कत लाल ( ५ ) ।