पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/५२

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बिहारी-रत्नाकर

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६ बिहारी-रत्नाकर फिरि फिरि चितु उत हीं रहतु, टुटी लाज की लाव | अंग-अंग-छवि-झर मैं भयौ भौंर की नाव ॥ १० ॥ लाव= रस्सी, नाव बॉधने की लहासी ।। लाज की लाव= लज्जा-कृत लाव, लज्जा से बनी हुई लाव अर्थात् लला-रूपी लाव॥ छबि= छवि-रूपी नद । यहाँ अारोप्यमान नद का अथोंपक्षेपण है। झार—यह शब्द झूमर का रूपांतर है। किसी वस्तु के झूमते हुए गोलाकृति समूह को झूमर अथवा झीर कहते हैं। हेमचंद्र की देशी नाममाला में यही शब्द ‘झॉडलिया' के रूप में मिलता है। उसका अर्थ रास के सदृश एक नाच है, जिसमें अनेक व्यक्ति मंडल बाँध कर नाचते हैं ॥ | ( अवतरण )--पूर्वानुरागिनी नायिका अंतरंगिनी सखी से अपनी स्नेह-दशा कहती है: ( अर्थ )-[ नायक के ] अंग अंग की छवि के झूमर में [ फंस कर मेरा ] चित्त, भंवर की (आँवर में पड़ी हुई ) नाव बना हुआ, फिर फिर कर ( घूम फिर कर ), उसी ओर ( नायक ही की ओर ) रहता है, [ और किसी ओर नहीं जाता, क्योंकि उसको नायक की ओर से खींचने वाली ] लज्जा-रूपी रस्सी टूट गई है ॥ नीकी दई अनाकनी फीकी परी गुहारि । तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि ॥ ११ ॥ अनाकनी =अनसुनी। आनाकानी देना=बात को सुनकर भी न सुनना । फोकी=प्रभाव-रहित ॥ गुहारि= पुकार ॥ विरदु= प्रशंसा, प्रशस्ति । तारन-बिरदु= तारने वाले होने की विख्याति ।। बारक= एक बार ही, सर्वथा ॥ चारनु=हाथी ॥ ( अवतरण )--भक़ का उलाहना भगवान् से ( अर्थ )--[ हे नाथ ! अपने तो ] अच्छी आनाकानी दी, [ हमारी ] पुकार फीकी पड़ गई ; मानो हाथी को तार कर [ अपने ] एक बार ही [ अपना ] तारन-विरद ( तारने वाले कहलाना ) छोड़ दिया ॥ चितई ललचौहैं चखनु डेटि हूँघट-पट माँह । छल स चली छुवाइ कै छिनकु छबीली छाँह ॥ १२ ॥ चितई—इस शब्द का प्रयोग बिहारी ने सब ठौर अकर्मक ही किया है । १४४, ३१९, ४१३ तथा ६२३ अंक के दोहाँ मैं इस शब्द का प्रयोग हुआ है, और सबमैं अकर्मक हो प्रयोग है ॥ | ( अवतरण )–नायक को देख कर नायिका ने जो अनुरागोत्पादक तथा अनुराग-व्यंजक चेष्टाएँ की हैं. उन पर रीझ कर नायक स्वगत, अथवा उसकी सखो से, कहता है ( अर्थ )-घूघट के पट में” से [ पहिल तो उसने ] डट कर (स्थिरत-पूर्वक, आँखा से आँखें भली भाँति मिलाकर) [ मुझे ] ललचाते हुए चक्षुओं से देखा, [ और फिर | १. तुटी ( २, ५ )। २. नीकै ( २ ) । ३. दुरि ( ४) ।