पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१०९

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सटीक : बेनीपुरी
 

(मिलने के लिए) चित्त तरसता है, (किन्तु) पड़ोस के घर में रहकर— अत्यन्त निकट रहकर—भी मिलते नहीं बनता। टाटी की ओट से ही उसका (विरहजनित) उच्छ्वास सुनकर छाती फटी जाती है।

जाल-रंध्र-मग अँगनु कौ कछु उजास सौ पाइ।
पोठि दिऐ जग त्यौं रह्यौ डीठि झरोखे लाइ॥२२४॥

अन्वय—जाल-रंध्र-मग अँगनु कौ कछु उजास सो पाइ। जग त्यौं पीठि दिऐ डीठि झरोखे लाइ रह्यौ।

जाल-रंध्र=जाली के छेद। मग=राह। उजास=उजाला। पाइ=पाकर। जग त्यों=संसार की ओर। पीठि दिये रहे=(संसार से) विमुख या उदासीन रहता है।

(झरोखे से लगी) जाली के छेदों के रास्ते से आग का कुछ उजाला-सा पाकर—जाली के छेदों से बाहर फूट निकलनेवाली तुम्हारी देह-द्युति को देखकर—(उस नायक ने) संसार की ओर पीठ दे दी है—संसार को भुला दिया है (और) सदा अपनी नजर (तुम्हारे) झरोखे से लगाये रहता है।

जद्यपि सुन्दर सुघर पुनि सगुनौ दीपक-देह।
तऊ प्रकास करै तितैं भरियै जितैं सनेह॥२२५॥

अन्वय—जद्यपि दीपक-देह सुन्दर सुघर पुनि सगुनौ तऊ तितैं प्रकास करै जितै सनेह भरियै।

सुघर=सुघड़=अच्छी गढ़न का। सगुनौ=गुणयुक्त और (गुण=डोरा) बत्ती-सहित। तऊ=तो भी। तिर्तैं=उतना। जितैं=जितना। सनेह=प्रेम, तेल।

यद्यपि दीपक रूपी शरीर सुन्दर है, सुघड़ है, और फिर गुणयुक्त है (दीपक-अर्थ में—बत्ती-सहित है), तो भी वह उतना ही प्रकाश करेगा, जितना उसमें प्रेम भरोगे (दीपक-अर्थ में—तेल भरोगे।)

दुचितैं चित न हलति चलति हँसति न झुकति विचारि।
लिखत चित्र पिउ लखि चितै रही चित्र-लौं नारि॥२२६॥