पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९७
सटीक : बेनीपुरी
 

अन्वय—दुखहाइनु आनन आनन चरचा नहीं पान। कानन कानन कान दिए ढूका लगी फिरैं।

दुखहाइनु=दुःख देनेवाली। आनन=मुख। आनन=अन्य लोगों की। आन=शपथ। ढूका लगी=टूका लगाकर, छिपकर। कानन=वन।

(इन) दुःख देनेवालियों के मुख में दूसरों की चर्चा नहीं रहती—(मैं यह बात) शपथ (खाकर कह सकती हूँ)। वन-वन में कान दिये ये ढूका लगी फिरती हैं—बिहार-स्थलों के निकट छिपकर हम दोनों की गुप्त बातें सुनने के लिए कान लगाये रहती हैं।

बहके सब जिय की कहत ठौरु-कुठौरु लखैं न।
छिन औरै छिन और से ए छवि-छाके नैन॥२४५॥

अन्वय—बहके जिय की सब कहत, ठौरु-कुठौरु न लखें। छबि-छाके ए नैन छिन औरे छिन और से।

छबि-छाके=शोभा-रूपी नशा पिये।

बहककर जी की सारी (बात) कह देते हैं। ठौर-कुठौर—मौका-बेमौका— कुछ नहीं देखते। सौंदर्य के नशे में मस्त ये नेत्र क्षण में कुछ और हैं, और (दूसरे) क्षण में कुछ और ही से हैं—प्रति क्षण बदलते रहते हैं।

नोट—नशे में आदमी को बोलने-बतराने का शऊर नहीं रहता। प्रत्येक क्षण उसकी बुद्धि बदलती रहती है। 'मतवाले की बहक' प्रसिद्ध है।

कहत सबै कवि कमल-से मो मति नैन पखानु।
नतरुक कत इन बिय लगत उपजतु विरह-कृसानु॥२४६॥

अन्वय—सबै कवि कमल-से कहत, मो मति नैन पखानु। नतरुक इन बिय लगत विरह-कृसानु कत उपजतु।

मो=मेरे। पखानु=पत्थर। नतरुक=नहीं तो। बिय=दो। कृसानु=आग।

सभी कवि (नेत्रों को) कमल के समान कहते हैं, (किन्तु) मेरे मत से ये (नेत्र) पत्थर (के समान) हैं। नहीं तो इनके—दो के—लगने से (एक

दूसरे की आँखों के परस्पर टकराने से) विरहरूपी आग कैसे पैदा होती?