पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१२१

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सटीक : बेनीपुरी
 

मेरे प्राण को अपने हाथ (वश) में करके (उस नायिका ने) मेरे हाथ में पान (का बीड़ा) रक्खा।

चितवनि भोरे भाइ की गोरैं मुँह मुसुकानि।
लागति लटकि अली गरैं चित खटकति नित आनि॥२५५॥

अन्वय—मोरे भाइ की चितवनि, गोरैं मुँह मुसुकानि, लटकि अली गरैं लागति, चित नित आनि खटकति।

चितवनि=देखना। भाइ=भाव। नित=नित्य। आनि =आकर।

भोलेभाले भाव से देखना, गोरे-गोरे मुख से मुस्कुराना और लचक-लचककर सखी के गले लग जाना—(उस नवयुवती की ये सारी चेष्टाएँ) मेरे चित्त में नित्य आकर खटकती हैं।

छिनु छिनु मैं खटकति सु हिय खरी भीर मैं जात।
कहि जु चली अनहीं चितै ओठन ही बिच बात॥२५६॥

अन्वय—खरी भीर मैं जात जु अनहीं चितै ओठन ही बिच बात कहि चली सु हिय छिनु-छिनु मैं खटकति।

खरी=अत्यन्त। अनहीं चितै=बिना देखे ही।

भारी भीड़ में जाने हुए उसका मेरी ओर बिना देखे ही (और) ओठों के बीच में ही बात कहकर चला जाना (मेरे) हृदय में प्रत्येक क्षण खटकता है (कि न जाने उसने यों धीरे-धीरे कौन-सी गोपनीय बात कही?)

चुनरी स्याम सतार नभ मुँह ससि की उनहारि।
नेहु दबावतु नींद लौं निरखि निसा-सी नारि॥२५७॥

अन्वय—स्याम चुनरी सतार नभ, मुख ससि की उनहारि। निसा-सी नारि निरखि नींद लौं नेहु दबावतु।

सतार=स+तार=तारा सहित। नभ=आकाश। ससि=चन्द्रमा। उनहारि=समान। नेह=प्रेम। लौं=समान। निसा=रात्रि।

काली चुनरी ही तारों से भरा आकाश है और मुखड़ा चन्द्रमा के समान है। (हम चन्द्र और तारे-भरे आकाश से युक्त) रात्रि के समान स्त्री को देखकर