पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१३

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'सतसई' का सौन्दर्य

हिन्दी का पद्य-साहित्य अत्यन्त सरस एवं अतीव गंभीर है । जबतक हिन्दी के पद्य-साहित्य-सुधा-सागर का विधिवत् मन्धन न किया जाय, तबतक कविवर बिहारी की सतसई का वास्तविक मूल्य मालूम नहीं हो सकता । हिन्दी-काव्य-संसार के नौ महारथियों में जिस कविरत्न को सादर स्थानापन्न किया गया है, उसकी रचना का वास्तविक मूल्य निर्धारित करना मुझ-जैसे अनाड़ी के लिए उपहासा-स्पद है । मुझ-जैसे अनधिकारियों के लिए ही लोलिम्बराज ने कहा है-

येषां न चेतो ललनासुलग्नं मग्नं न साहित्यसुधासमुद्रे ।
ज्ञास्यन्ति ते किं मम हा प्रयासानन्धा यथा वारवधूविलासान् ॥

किन्तु जिस वस्तु में गुणों का आधिक्य है, उसके विषय में मौन हो जाना, ईश्वर की दी हुई वाणी को व्यर्थ करना है । जिस वाणी ने गुणवान् के गुणों का वर्णन नहीं किया, उसका होना ही निष्फल है । निष्फल ही क्यों, हृदय में चुभनेवाले काँटे के समान कष्टकर है ।

यही सोचकर, अपनी असमर्थता का ध्यान छोड़कर हृदय को सन्तोष देने और काव्यानुगगी पाठकों के मनोरंजन के लिए, मैं महाकवि बिहारी की रसमयी कविता की माधुरी चखाना चाहता हूँ । साथ ही, बिहारी की कविता-रूपिणी कान्तिमयी मणि की दीप्ति भी दिखाने की इच्छा है । कृपा कर सहृदयता की आँखों में अनुगग का अंजन लगाकर देखिए ।

पहले एक विचित्र कल्पना देखिए । 'बिहारी' होने के कारण मुझे 'बिहारीलाल' के विषय में कुछ कल्पना करने की इच्छा होती है । यद्यपि 'बिहारी' के चरित्र-रचयिताओं ने बिहार-प्रान्त से उनके किसी तरह के सम्बन्ध की कल्पना तक नहीं की है, तथापि हम 'बिहारी' इस महाकवि पर केवल नाम-सादृश्य का दावा कर सकते हैं । बंगालियों ने हमसे विद्यापति को छीन लिया था, शायद 'बिहारी' भी छीन लिये गये हों !