आछी भाँति=अच्छी तरह। अएरि=अंगीकार करके। जापैं=जिसपर, जिसके द्वारा। चाहतु=मन-चाह। ताके=उसके।
अच्छी तरह अंगीकार करके (जो कुछ उसने) दिया है, सो शीश पर चढ़ा ले—दुःख ही दिया तो क्या हुआ, उसे भी अंगीकार कर ले। जिससे मनचाहा सुख लिया, उसके (दिये हुए) दुःख को भी मत फेर—वापस न कर।
कहा लड़ैते दृग करे परे लाल बेहाल।
कहुँ मुरली कहुँ पीतपटु कहूँ मुकुट बनमाल॥२८०॥
अन्वय—दृग कहा लड़ैते करे लाल बेहाल परे, कहुँ मुरली कहुँ पीतपटु कहूँ मुकुट बनमाल।
कहा=कैसा। लड़ैते=लड़ाकू। लाल=नन्दलाल, श्रीकृष्ण। बेहाल=व्याकुल। कहुँ =कहीं। पीतपटु=पीताम्बर।
(तुमने अपने) नेत्रों को कैसा लड़ाकू बना लिया है? वे कैसे ऊधमी हो गये हैं? (देखो! उसकी मार से) श्रीकृष्ण व्याकुल होकर (घायल-से) पड़े हैं। कहीं मुरली (पड़ी) है, कहीं पीताम्बर (पड़ा) है, कहीं मुकुट (लुढ़क रहा) है, और कहीं बनमाला (लोट रही) है—(उन्हें किसीकी सुधि नहीं!)
तूँ मोहन मन गड़ि रही गाढ़ी गड़नि गुवालि।
उठे सदा नटसाल ज्यों सौतिनु के उर सालि॥२८१॥
अन्वय—गुवालि तूँ मोहन मन गाढ़ी गड़नि गड़ि रही। सौतिनु के उर नटसाल ज्यौं सदा सालि उठे।
गाढ़ि गड़नि=अच्छी तरह से, मजबूती के साथ। गुवालि=ग्वालिन। नटसाल= तीर की चोखी नोक जो टूटकर शरीर के भीतर ही रह जाती है और पीड़ा देती है। ज्यौं=समान, जैसे। सालि=कसक।
अरी ग्वालिन! तू मोहन के मन में भली भाँति गढ़ रही है—श्रीकृष्ण के हृदय में तूने अच्छी तरह घर कर लिया है। (यह देखकर) सौतिनों के हृदय में तीर की टूटी हुई नोक की पीड़ा के समान सदा कसक उठती रहती है।