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बिहारी-सतसई
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होने पर भी सजा चाहता है—नायिका की आँखों में कैद होना! कविवर रहीम ने भी भगवान् श्रीकृष्ण से कहा है कि मैं नट के समान चौरासी लाख रूप बनाकर तुम्हारे निकट आया, अगर मेरे इन रूपों पर तुम प्रसन्न हो तो मुझे मनचाही (मुक्ति) दो, नहीं, कहो तो मैं इन रूपों को ही न बनाऊँ, और यों चौरासी के फेर से बचूँ। कैसी विलक्षण उक्ति है—आनीता नटवन्मया तब पुनः श्रीकृष्ण या भूमिका, व्योमाकाश खखांबराब्धि वसुवत् त्वत्प्रीतपेद्या-वधि, प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भगवान् स्वप्रार्थितं देहि मे, नोचेद्बहि कदापि मानय पुनस्वेतादृशी भूमिका"—रहीम काव्य।

बाल-बेलि सूखी सुखद् इहिं रूखी-रुख-घाम।
फेरि डहडही कीजियै सुरस सींचि घनस्याम॥२८७॥

अन्वय—इहि रूखी-रुख-घाम सुखद बाल-बेलि सूखी। घनस्याम सुरस सींचि फेरि डहडही कीजियै।

बेलि=लता। रूखी-रुख=क्रोधभाव। घाम=रौद, धूप। डहडही=हरी-भरी। सुरस=(१) सुन्दर प्रेम (२) सुन्दर जल। घनस्याम=(१)श्रीकृष्ण (२) श्यामल मेघ।

इस क्रोध-भाव-रूपी घाम से (वह) सुख देनेवाली बाला-रूपी लता सूख गई है। (अतएव) हे घनश्याम! सुन्दर (प्रेम-रूपी) जल से सींचकर इसे पुनः हरी-भरी कर दीजिए।

हरि हरि बरि बरि उठति है करि करि थकी उपाइ।
वाको जुरु बलि बैदजू तो रस जाइ तु जाइ॥२८८॥

अन्वय—हरि हरि बरि बरि उठति है, उपाइ करि करि थकी। बैदजू, बलि, वाको जुरु तु रस जाइ तो जाइ।

बरि-बरि=जल-जलकर। वाको=उसको। जुरु=ज्वर, बुखार। बलि=बलैया लेना। रस=(१) मकरध्वज आदि रासायनिक औषधि (२) प्रेम, मिलन-जनित आनन्द।

हे हरि! (विरह-ज्वाला में) जल-जल वह) उठती है। (मैं) उपाय कर-करके थक गई। हे वैद्य महाराज, मैं बलैया लेती हूँ, उसका (विरह-रूपी)