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बिहारी-सतसई
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है—या चन्द्रमा की किरण (मुखचन्द्र-छबि) को चुगता है—(किसी तीसरे के पास नहीं जाता।)

कब की ध्यान लगी लखौं यह घरु लगिहै काहि।
डरियतु भृंगी-कीट लौं मति वहई ह्वै जाहि॥२९६॥

अन्वय—लखौं कब की ध्यान लगी, यह घरु काहि लगिहै। डरियतु भृंगी-कीट लौं मति वहई ह्वै जाहि।

यह घरु काहि लगिहै=यह घर कौन सुधार सकेगी। भृंगी-कीट=भृंगी नामक एक छोटा-सा कीड़ा, जो दूसरे छोटे-छोटे कीड़ों को अपने घर में ले जाकर उनके निकट इतना भनभनाता है कि वे भी उसीके संगीत में लीन होकर भृंगी ही बन जाते हैं। लौं=समान। मति=बुद्धि। वहई=वही।

देखो, कब से ध्यान लगाये हुई है। भला, यह घर कौन सुधार सकेगा— इसे कौन समझा-बुझा सकेगा। मैं तो डरती हूँ कि भृंगी-कीट-न्याय से कहीं उस (नायिका) की बुद्धि भी वही न हो जाय।

नोट—नायिका भी कहीं नायक के ध्यान में निमग्न होकर नायक ही बन गई, तो भय है कि घर-गिरस्ती कौन सँभालेगा।

रही अचल-सी ह्वै मनौ लिखी चित्र की आहि।
तजैं लाज डरु लोक कौ कहौ बिलोकति काहि॥२९७॥

अन्वय—अचल-सी ह्वै रही मनौ चित्र की लिखी आहि। लोक कौ लाज डरु तजैं कहौ काहि बिलोकति।

अचल=स्थिर। आहि=है। बिलोकति=देखती हो। काहि=किसे।

निश्चल-सी हो रही हो-जरा भी हिलती-डुलती नहीं——मानो चित्र की-सी लिखी (तस्वीर) हो। इस प्रकार संसार की लाज और डर छोड़कर, कहो, तुम किसे देख रही हो?

ठाढ़ी मंदिर पै लखै मोहन-दुति सुकुमारि।
तन थाकै हू ना थकै चख चित चतुर निहारि॥२९८॥

अन्वय—मंदिर पै ठाढ़ी सुकुमारि मोहन-दुति लखै। तन थाकै हू चख चित ना थकै, चतुर निहारि।